एसईजेड के लिए ज़मीन का अधिग्रहण लगभग दो लाख़ किसानों को भूमि से बेदखल कर देगा |
किसी छमाही में इसके 9.1 प्रतिशत पर पहुँचने का भी यह पहला मौक़ा है. लेकिन इसके उलट कृषि क्षेत्र की विकास दर 1.7 फ़ीसदी पर ही अटक गई.
चालू 10वीं पंचवर्षीय योजना में यह चार फ़ीसदी के लक्ष्य के मुकाबले दो फीसदी तक भी नहीं पहुँच सकी है.
इसके साथ ही जो बड़ा बदलाव खेती के क्षेत्र में आया वह था किसानों की संख्या का बढ़ना. इसके चलते उनकी जोत का आकार भी कम हुआ है.
कृषि संकट
पिछले 15 सालों में किसानों की संख्या एक करोड़ से बढ़कर 11.50 करोड़ को पार कर गई, जबकि खेती की ज़मीन क़रीब दो करोड़ हेक्टेयर घट गई.
औद्योगिक और सेवा क्षेत्र के दम पर बढ़ रही अर्थव्यवस्था खेती का बोझ कम करने में नाकाम रही है.
इस हालात में उद्योगों को विकसित करने के नाम पर खेती की ज़मीन का उपयोग किसानों को इसके विरोध में खड़ा करने के लिए काफ़ी है.
बिना किसी संकोच के सरकार और स्वयं प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह स्वीकार कर चुके हैं कि कृषि क्षेत्र संकट में है. सचाई यह भी है कि इस संकट का कोई तर्कसंगत हल सरकार को अभी तक नहीं मिल सका है.
"भारत में किसानों की औसत मासिक आय मात्र 916 रुपए है" |
इस स्थिति के बीच विशेष आर्थिक क्षेत्र (एसईजेड) के लिए उपजाऊ कृषि भूमि के बड़े पैमाने पर अधिग्रहण ने आग में घी का काम किया है.
यही वजह है कि एसईजेड क़ानून का विरोध बढ़ता जा रहा है. लेकिन वाणिज्य मंत्रालय एसईजेड प्रस्तावों को मंजूरी देता जा रहा है. अब तक 237 एसईजेड को औपचारिक मंजूरी मिल चुकी है. जबकि 170 प्रस्तावों को सैद्धांतिक रूप से स्वीकृति दी गई है.
करीब दो लाख हेक्टेयर भूमि का उपयोग एसईजेड के लिए होने वाला है. भारत की 14.2 करोड़ हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि में यह आँकड़ा बहुत बड़ा नहीं है.
लेकिन यह भी सच है कि इसमें अधिकांश हिस्सा उपजाऊ है जो खाद्यान्न उत्पादन में करीब 10 लाख टन तक की कमी ला सकता है.
ख़तरा
कृषि भूमि के मामले में सरकार के आँकड़े काफ़ी पुराने हैं और 1995 के आधार पर उपलब्ध आँकड़ों के मुताबिक औसत जोत का आकार 1.41 हेक्टेयर है. जिसमें पिछले 11 साल में कमी आना तय है. इसलिए यह अधिग्रहण डेढ़ से दो लाख किसानों को भूमि से बेदखल कर देगा.
अगर इन किसानों को एकमुश्त कुछ पैसा मुआवजे के रूप में मिलना भी है तो थोड़े समय की अमीरी इनकी आगे की पीढ़ियों से आय के दीर्घकालीन स्रोत छीन लेगी.
यह सब सवाल इसलिए भी खड़े हो रहे हैं कि सरकारें भू अधिग्रहण क़ानून 1984 के तहत किसानों की ज़मीन अधिग्रहित कर निजी उद्यमियों को दे रही है.
इससे अधिक बड़ा सवाल एसईजेड क़ानून का वह प्रावधान है जो इन्हें विकसित करने वाले उद्यमियों को ज़मीन के केवल 35 फ़ीसदी हिस्से में ही उत्पादक गतिविधियों की शर्त लागू करता है और बाकी का इस्तेमाल रीयल एस्टेट के लिए किया जा सकता है.
रोज़गार
यानी सरकार एक तरह से प्राइवेट शहर विकसित करने की छूट दे रही है. इसमें किसानों की किसी तरह की हिस्सेदारी नहीं होगी.
"भारत में 90 से 95 फ़ीसदी किसान छोटी जोत वाले हैं" |
हालाँकि रोज़गार के नए अवसर पैदा होने की बात की जा रही है. लेकिन ज़रूरी दक्षता के बिना अधिकांश किसान परिवारों को चतुर्थ श्रेणी का ही रोज़गार मिलेगा.
पिछले साल फरवरी में आर्थिक विकास के चीनी मॉडल को अपनाकर विश्वस्तरीय ढाँचागत सुविधाएँ विकसित करने और निर्यात के ज़रिए रोज़गार के अवसर सृजित करने की बड़ी उम्मीदों पर एसईजेड क़ानून बनाया गया था.
लेकिन ग्रामीण आबादी और ख़ासतौर से किसानों को इसका लाभ सुनिश्चित करने के लिए ठोस उपाय नहीं किए गए हैं.
सवाल है कि जब पिछले 15 साल में खेती पर बोझ घटने के बजाय बढ़ा है और किसान परिवारों की वास्तविक आय घटी है तो फिर अब कौन सा चमत्कार होने वाला है.
यही नहीं कृषि क्षेत्र में रोज़गार सृजन की दर में भारी कमी दर्ज़ की गई. अब भी देश की 58 फ़ीसदी आबादी सीधे खेती-किसानी के ज़रिए जीवन यापन करती है और परोक्ष रूप से तो लगभग 75 फ़ीसदी आबादी खेती और उससे जुड़े काम धंधों पर निर्भर है.
जब पिछले 15 साल में खेती पर बोझ घटने के बजाय बढ़ा है और किसान परिवारों की वास्तविक आय घटी है तो फिर अब कौन सा चमत्कार होने वाला है |
खुद कृषि मंत्रालय के अधिकारी कहते हैं कि देश में किसान परिवार की औसत मासिक आय मात्र 916 रुपए है. जो सालाना 10 हज़ार 992 रुपए बैठती है. ऐसे में वह सभी गरीबी रेखा के नीचे हैं.
इसलिए देश में गरीबी रेखा से नीचे (बीपीएल) के लोगों की संख्या घटकर 26 फीसदी पर आने के दावे पर भी सवाल खड़ा होता है.
ग़रीबी
अगर किसान परिवारों की खेती के अलावा दूसरे स्रोतों से आय न हो तो वाकई वह सभी बीपीएल के नीचे आते हैं.
पाँच से दस फ़ीसदी बड़ी जोत वाले किसान परिवार इसका अपवाद हो सकते हैं. वैसे 10 हेक्टेयर से अधिक की जोत वाले किसानों का देश में हिस्सा मात्र 1.2 फ़ीसदी ही है.
पिछले दो दशक में कृषि योग्य भूमि में भारी कमी आई है और उत्पादकता भी स्थिर होकर रह गई है.
ऐसे में दूसरी हरित क्राँति की बात की जा रही है ताकि देश की खाद्यान्न ज़रूरत को पूरा किया जा सके.
पिछले एक दशक में खाद्यान्न उत्पादन में ऋणात्मक रुझान रहा है और यह 20 करोड़ टन के आसपास ही अटक कर रह गया है.
इस साल उत्पादन में गड़बड़ी का नतीज़ा 50 लाख टन गेहूँ के आयात के रूप में भुगतना पड़ा है. वह भी 206 डॉलर प्रति टन की औसत कीमत पर.
"भारत में 60 फ़ीसदी खेती योग्य भूमि अभी भी असिंचित है और किसान मानसून पर निर्भर हैं" |
देश की 60 फीसदी खेती योग्य भूमि अभी भी असिंचित है. ऐसे में सिंचित और बेहतर उत्पादकता वाली भूमि का महत्व बहुत अधिक हो जाता है.
अभी तक पंजाब, हरियाणा, महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश, छत्तीसगढ़, उड़ीसा और पश्चिम बंगाल राज्यों में मंजूर किए गए बड़े एसईजेड में से अधिकांश बेहतर उत्पादकता वाली खेती योग्य भूमि पर हैं और इसीलिए विवादों से घिरे हैं.
चुनौती
जिस चीन की सफलता को दोहराने की कोशिश हो रही है, वहाँ पर एसईजेड बड़े शहरों से काफ़ी दूर छोटे कस्बों या गावों के पास विकसित किए गए ताकि वहाँ भी आधुनिक सुविधाएँ विकसित हो सकें और इसका विकेंद्रीकरण हो सके. जबकि यहाँ इसके उलट एसईजेड महानगरों के करीब स्थापित हो रहे हैं.
भारत में पहले से स्थापित 11 एसईजेड 2004-05 में कुल निर्यात का केवल 0.05 फीसदी ही निर्यात कर सके हैं.
दो करोड़ लोगों को रोज़गार देने के साथ लघु उद्योगों की प्रत्यक्ष निर्यात में 35 फ़ीसदी हिस्सेदारी है. इसलिए सरकार को एसईजेड की बजाय लघु उद्योगों को निर्यात के केंद्र में रखकर इनके समूह विकसित करने चाहिए.
निर्यात की सफलता को लेकर घरेलू कारकों के अलावा कई अंतरराष्ट्रीय कारक भी ज़िम्मेदार होते हैं ऐसे में एसईजेड पर इतना बड़ा दाँव खेलने की बजाय दूसरे विकल्पों पर विचार अधिक कारगर साबित हो सकता है. वहीं इसके लिए किसी बड़े विस्थापन की भी ज़रूरत नहीं है.
बीबीसी से साभार
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